Hindi NewsLocalMpUjjainStory Of Becoming A Disciple Of Gorakhnath By Handing Over The Throne To Younger Brother Vikramaditya
पराग नातू/राजीव तिवारी। उज्जैन12 मिनट पहले
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के नए दर्शन परिसर ‘महाकाल लोक’ को मंगलवार शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र को समर्पित कर दिया। ‘महाकाल लोक’ के बनने के बाद यह एकमात्र ऐसा मंदिर बन गया है, जहां श्रद्धालु दर्शन के साथ शिव से जुड़ी हर कहानी जान सकते हैं। उज्जैन का भव्य ‘महाकाल लोक’ अपने आप में अद्भुत है। उज्जयिनी में कई ऐसी अनसुनी कथाएं हैं, जो अपने-आप में अनूठी हैं।
पढ़ें ऐसी ही 3 कहानियां…
उज्जैन के राजा भर्तृहरि जब बन गए संत…
उज्जयिनी अब उज्जैन के नाम से जाना जाता है। यहां के राजा थे विक्रमादित्य। विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन की दो पत्नियां थीं। एक से विक्रमादित्य और दूसरी से भर्तृहरि थे। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ बड़े होने के कारण भर्तृहरि को मिला। राजा भर्तृहरि की दो पत्नियां थीं। तीसरा विवाह रानी पिंगला से किया। पिंगला बहुत सुंदर थीं। राजा भर्तृहरि के संत बनने के पीछे कई तरह की कहानियां कही-सुनी जाती हैं। दो सबसे प्रचलित कहानियों में से एक के अनुसार अपनी सबसे प्रिय रानी पिंगला की बेवफाई से दुखी होकर उन्होंने अपना राजपाट छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप दिया था और संन्यासी बन गए। दूसरी कहानी के मुताबिक अपनी मृत्यु की झूठी खबर सुनकर रानी पिंगला के सती हो जाने के बाद वह गुरु गोरखनाथ की शरण में चले गए थे।
इंद्र भी हो गए थे भयभीतउज्जैन में स्थित भर्तृहरि गुफा 300 से 3500 साल पुरानी बताई जाती है। ऐसी मान्यता है कि राजा भर्तृहरि ने यहां 12 साल तक तप किया। उनकी कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा कि भर्तृहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण कर देंगे। यह सोचकर इंद्र ने भर्तृहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। भर्तृहरि ने पत्थर को एक हाथ से रोका और तपस्या जारी रखी। कई वर्षों तक उसी अवस्था में रहने से पत्थर पर भर्तृहरि के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भर्तृहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है।
धूनी की राख रहती है हमेशा गर्मगुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है। एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह गोपीचन्द की गुफा है जो कि भर्तृहरि के शिष्य थे। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।
अंतिम समय राजस्थान में बीताराजा भर्तृहरि का अंतिम समय राजस्थान में बीता। उनकी समाधि अलवर (राजस्थान) के जंगल में है। उसके 7वें दरवाजे पर एक अखंड दीपक जलता रहता है। उसे भर्तृहरि की ज्योति माना जाता है। भर्तृहरि महान शिवभक्त और सिद्ध योगी थे और अपने भाई विक्रमादित्य को पुनः स्थापित कर अमर हो गए। विक्रमादित्य उनकी तरह ही चक्रवर्ती निकले और उनके सुशासन काल में विक्रम संवत की स्थापना हुई, जिसका शुभारंभ आज भी चैत्रमास के नवरात्र से आरंभ होता है।
आइए जानते हैं, वेधशाला और यहां लगे प्राचीन यंत्रों को…काल गणना की दृष्टि से पूरे विश्व में उज्जैन का खास महत्व है। यहां लगे प्राचीन यंत्रों के माध्यम से ग्रहों की चाल, सूर्य और चंद्र ग्रहण और सूर्य की चाल से समय की गणना की जाती है। उज्जैन में जीवाजी वेधशाला के ऑब्जर्वर भरत कुमार तिवारी ने बताया कि जयपुर के महाराज सवाई राजा जयसिंह द्वितीय ने देश के 5 शहरों में वेधशालाओं का निर्माण कराया था। उज्जैन के अलावा, दिल्ली, मथुरा, जयपुर और वाराणसी में भी वेधशालाओं का निर्माण हुआ, लेकिन वर्तमान में सिर्फ उज्जैन की वेदशाला की वर्किंग में है। यहां पर दृश्य ग्रह स्थिति पंचांग और आकाश अवलोकन का काम होता है। उज्जैन की वेधशाला 1719 से वर्किंग में आई। यह सभी में प्रमुख है। इन वेधशालाओं में राजा जयसिंह ने 8 साल तक ग्रह-नक्षत्रों के वेध लेकर ज्योतिष गणित के कई प्रमुख यंत्रों में संशोधन किया। मुख्यतः ईंटों और पत्थर से निर्मित वेधशाला की इमारतें और यंत्र आज भी जीवंत हैं।
अब पढ़िए, मां हरिसिद्ध के गुजरात से उज्जैन आने की कहानी
धर्म ग्रंथों के अनुसार माता सती के अंग जहां-जहां गिरे, वहां शक्तिपीठ के रूप में उनकी उपासना की जाती है। हिंदू धर्म में कुल 52 शक्तिपीठों की मान्यता है। इन्हीं में से एक हैं, उज्जैन स्थित मां हरिसिद्धि, जहां माता सती की कोहनी गिरी थी। ऐसी मान्यता है कि मां हरिसिद्धि दिन और रात में अलग-अलग जगह पर रहती हैं।
यह है कहानी…गुजरात स्थित पोरबंदर से करीब 48 किमी दूर मूल द्वारका के समीप समुद्र की खाड़ी के किनारे मियां गांव है। खाड़ी के पार पर्वत की सीढ़ियों के नीचे हर्षद माता (हरसिद्धि) का मंदिर है। मान्यता है कि उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य मां के बहुत बड़े भक्त थे। यहीं से आराधना करके वे देवी को उज्जैन लाए थे। तब देवी ने विक्रमादित्य से कहा था कि मैं रात के समय तुम्हारे नगर में और दिन में इसी स्थान पर वास करूंगी। इस कारण आज भी माता दिन में गुजरात और रात में मप्र के उज्जैन में वास करती हैं।
इसलिए पड़ा हरसिद्धि नामस्कंदपुराण में कथा है कि एक बार जब चंड-प्रचंड नाम के दो दावन जबरन कैलास पर्वत पर प्रवेश करने लगे तो नंदी ने उन्हें रोक दिया। असुरों ने नंदी को घायल कर दिया। इस पर भगवान शिव ने भगवती चंडी का स्मरण किया। शिव के आदेश पर देवी ने दोनों असुरों का वध कर दिया। प्रसन्न महादेव ने कहा- तुमने इन दानवों का वध किया है, इसलिए आज से तुम्हारा नाम हरसिद्धि प्रसिद्ध होगा।
विक्रमादित्य ने 11 बार चढ़ाया सिरसम्राट विक्रमादित्य माता हरसिद्धि के परम भक्त थे। किवदंती है कि हर बारह साल में एक बार वे अपना सिर माता के चरणों में अर्पित कर देते थे, लेकिन माता की कृपा से पुन: नया सिर मिल जाता था। 12वीं बार जब उन्होंने अपना सिर चढ़ाया तो वह फिर वापस नहीं आया। इस कारण उनका जीवन समाप्त हो गया। आज भी मंदिर के एक कोने में 11 सिंदूर लगे मुंड पड़े हैं। कहते हैं ये उन्हीं के कटे हुए मुंड हैं।
मंदिर की विशेषता…
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